Saturday, September 29, 2012

कल्याणजी-आनंदजी की सलाह पर मैं बन गया शानू-कुमार शानू

फ़िल्मों में गाने का ब्रेक मुझे जगजीत सिंह ने दिया था। इससे पहले मैं कोलकाता में होटलों में गाया करता था और शो वगैरह करता था। एक बार मुंबई के वेस्टर्न आउटडोर स्टूडियो में किशोर दा के गाने का कवर वर्ज़न गा रहा था। वहां जगजीत सिंह भी आए हुए थे। उन्होंने मुझे गाते हुए सुना और पास बुलाकर कहा, तुम्हारी आवाज़ अच्छी है। उन्होंने मुझे अपने घर पर बुलाया। मैं उनके घर पहुंचा और वो अपनी गाड़ी में बिठाकर मुझे ताड़देव के फेमस रिकॉर्डिंग स्टूडियो में लेकर गए।
मुझे आंधियां फ़िल्म के लिए एक गाना गाना था। मैं पहली बार किसी फ़िल्म के लिए गा रहा था। मैं ख़ुश था और डरा हुआ भी। जगजीत जी ने मेरा बहुत हौसला बढ़ाया। गाने की रिकॉर्डिंग के बाद उन्होंने मुझे सीने से लगाकर मेहनताने के रूप में 1500 रुपए दिए।
जगजीत सिंह ने मुझे कल्याणजी-आनंदजी से मिलवाया। मेरी आवाज़ उन्हें काफी पसंद आई। कल्याणजी ने मुझे फ़िल्म जादूगर में गाने का मौक़ा दिया, जिसमें अमिताभ बच्चन के लिए मैंने प्लेबैक गाना गाया। इसके बाद कोलकाता से मुंबई शिफ्ट हो गया और कल्याणजी-आनंदजी भाई के साथ जुड़ गया। मैंने उनके साथ कई शो किए। कल्याणजी-आनंदजी ने ही मुझे मेरा नाम केदारनाथ भट्टाचार्य से बदलकर कुमार शानू रखने की सलाह दी थी।
इसके बाद का सफ़र लगातार जारी रहा। आशिक़ी, साजन, फूल और कांटे, दिल है कि मानता नहीं, सड़क, दीवाना, बाज़ीगर, हम हैं राही प्यार के, कभी हां, कभी ना, 1942- ए लव स्टोरी जैसी फ़िल्में कीं और श्रोताओं का अथाह प्यार मिलता गया।
संगीत की प्रेरणा मुझे पिताजी से मिली है। उन्हें और किशोर दा को अपना आदर्श मानता हूं। अब तक 17,000 से ज़्यादा गाने गा चुका हूं। हाल ही राउडी राठौर फ़िल्म के लिए गाया है। इसके अलावा मेरी एक एलबम के तेरे बिन भी रिलीज़ हुई है। 
-कुमार शानू से बातचीत पर आधारित 

(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 30 सितंबर 2012 को प्रकाशित)

Saturday, September 22, 2012

ऑडिशन के लिए मिली थी सिर्फ़ एक लाइन-टीकू तलसानिया

मैं पूरी तरह से थिएटर को समर्पित था। साल 1984 में इंडियन नेशनल थिएटर के लिए एक नाटक कर रहा था, जिसे देखने कुंदन शाह आए थे। कुंदन जी इंटरवल में मेरे पास आए और टीवी सीरियल यह जो है ज़िंदगी में काम करने का ऑफर दिया। ऑडिशन में मुझे एक ही लाइन बोलने के लिए दी गई। लाइन थी, यह क्या हो रहा है....। मैंने कुंदन जी से पूछा, 'यह क्या है!' तो उन्होंने कहा कि बस यही बोलकर दिखाओ। मैंने उस एक लाइन पर इतना ज़्यादा ज़ोर दिया कि वो टैगलाइन बन गई, और आज भी लोग उसे भूले नहीं हैं। सीरियल भी सुपरहिट रहा। मुझे अभिनेता ही बनना था और टेलीविज़न पर मेरी शुरुआत धमाकेदार हुई थी।
मैं ख़ुशनसीब हूं कि हमेशा सही समय पर सही जगह पहुंचा। फ़िल्मों में मेरी शुरुआत रविकांत नगाइच की फ़िल्म ड्यूटी से हुई। रविकांत जी के एक दोस्त ने मुझसे संपर्क किया और फ़िल्म में काम करने को कहा। मुझे मुख्य विलेन की भूमिका निभानी थी, लेकिन पैसे बहुत कम थे। थिएटर से जुड़े होने के कारण हमेशा नए तरह के रोल करने की हसरत होती है, इसलिए मैंने हां कर दी। फ़िल्म तो चली नहीं, लेकिन उसके बाद काम मिलने लगा। मुझे याद है, मैंने रविकांत जी से पूछा था कि मुझे लेकर फ़िल्म बनाने का क्या कारण था। उन्होंने कहा कि मुझे फ़िल्म में इसलिए लिया गया था क्योंकि मेरा चेहरा दक्षिण के एक अभिनेता से मिलता-जुलता था।
अपने काफी लंबे करियर के दौरान थिएटर के साथ-साथ कई टेलीविज़न सीरियल्स और फ़िल्मों के लिए काम कर चुका हूं। थिएटर के शो अमूमन रात को होते हैं, इसलिए दिन में शूटिंग के लिए आराम से समय निकाल लेता हूं। लेकिन थिएटर अब भी मेरा पहला प्यार है, इसलिए नियमित रूप से शो करता हूं। इन दिनों सबटेलीविज़न के लिए कॉमेडी शो कर रहा हूं, जिसका नाम है, गोलमाल है भाई सब गोलमाल है....। इसके अलावा दो फ़िल्में आने वाली हैं, जिनमें से एक 3-डी फ़िल्म है। 
-टीकू तलसानिया से बातचीत पर आधारित 

(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 23 सितंबर 2012 को प्रकाशित) 

Sunday, September 16, 2012

अमेरिका से एक्टिंग करने भारत आई थी-दीप्ति नवल

न्यूयॉर्क में अपने कॉलेज के दिनों में मैं एक रेडियो प्रोग्राम किया करती थी। भारत से जब भी कोई बड़ी हस्ती वहां आती, तो मैं उसका इंटरव्यू करती। वहीं मेरी मुलाक़ात सुनील दत्त, गुलज़ार, साधना और संगीतकार हेमंत कुमार से हुई। मैंने मैनहट्टन से फ़िल्म मेकिंग का कोर्स भी किया था। एक फ़िल्म के सिलसिले में मुझे भारत आने का मौक़ा मिला। मैं यहां किसी को नहीं जानती थी, सिवाय उनके, जिनसे मैं न्यूयॉर्क में मिली थी। यहां मेरी दोस्ती हेमंत कुमार की बेटी रानू से हुई। उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य और सई परांजपे से मुझे मिलवाया। लेकिन इस बीच दूरदर्शन में मेरी मुलाक़ात फारुख शेख से हुई। वो मेरे को-होस्ट थे, मुझे उनके साथ एक प्रोग्राम की कंपियरिंग करनी थी। फारुख जी के पास लंदन से विनोद पांडे नाम के एक शख़्स आए थे, जो अपनी फ़िल्म के लिए कास्टिंग कर रहे थे। फ़िल्म का नाम था, एक बार फिर। फारुख जी ने उनसे कहा, 'लंबे बालों और बड़ी-बड़ी आंखों वाली जिस हीरोइन की आप तलाश कर रहे हैं, ठीक ऐसी लड़की से मैं हाल में मिला हूं; वह अमेरिका से एक्टिंग करने भारत आईं हैं, आप उनसे ज़रूर मिलिए।' 
मैं तब बांद्रा के बैंडस्टैंड इलाक़े में बतौर पेइंग-गेस्ट रहती थी। घर पहुंची तो मेरे लिए संदेश था कि लंदन से कोई फ़िल्ममेकर आए हैं और आपको अपनी फ़िल्म में लेना चाहते हैं। मैं उनसे मिलने पहुंची। मुझे चार-पांच लाइनें बोलने के लिए दी गईं। जैसे ही स्क्रिप्ट ख़त्म हुई, विनोद पांडे ने मुझसे कहा, 'हीरोइन की मेरी तलाश ख़त्म हो गई है, अब तुम हीरो ढूंढने में मेरी मदद करो।' इस दौरान मेरे कुछ और दोस्त बन गए थे जो फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट से थे। मैंने उन्हें विनोद पांडे से मिलवाया, और उनकी मदद से हम सुरेश ओबेरॉय तक पहुंचे। 
इससे पहले मैं श्याम बेनेगल की फ़िल्म जुनून में छोटा-सा रोल कर चुकी थी, लेकिन मैं उसे अपनी पहली फ़िल्म नहीं मानती, क्योंकि उसमें करने के लिए कुछ नहीं था। फ़िल्म में सिर्फ़ तीन सीन थे, जिनमें से एक दृश्य में मुझे रोना था, दूसरे में मैं घूंघट में थी और तीसरे में झूले पर गाना गा रही थी। फ़िल्मों में मेरी असल शुरुआत एक बार फिर से हुई और इस फ़िल्म के बाद मैंने ठाना कि मुझे एक्टिंग ही करनी है। 
-दीप्ति नवल से बातचीत पर आधारित विस्तृत इंटरव्यू यहां। 

(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 16 सितंबर 2012 को प्रकाशित) 

Sunday, September 9, 2012

पहली कमाई पूरी मिल पाई 15-20 साल में-फारुख शेख

मैं मुंबई में वकालत की पढ़ाई कर रहा था और इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से भी जुड़ा हुआ था। थिएटर हम लोग शौकिया तौर पर करते थे। इप्टा में ही नामचीन निर्देशक एम.एस. सथ्यु थे जो अपनी पहली फ़िल्म गर्म हवा बना रहे थे। फ़िल्म बनाने के पैसे तो थे नहीं, सो कुछ धनराशि एनएफडीसी से और कुछ दोस्तों से कर्ज़ लेकर सथ्यु साहब ने जैसे-तैसे फ़िल्म मुकम्मल की। बलराज साहनी मुख्य भूमिका में थे। उन्हें थोड़ा-बहुत मेहनताना दिया गया, पर बाकी कलाकारों से दरख़्वास्त की गई कि पैसे न मांगें। मुझे भी छोटा-सा रोल करने को कहा गया। मैंने फ़ौरन हामी भर दी। सथ्यु साहब ने 750 रुपए की शानदार रक़म के साथ मुझे साइन किया। उन्होंने मुझे पेशगी 150 रुपए दिए और बाकी पैसा 15-20 साल में जाकर चुकाया। 
गर्म हवा की शूटिंग के लिए हम दो महीने आगरा में रहे। मैं बलराज साहनी के बेटे के किरदार में था। फ़िल्म लोगों को पसंद आई, अख़बारों में रिव्यू भी शानदार थे। सत्यजीत रे और मुज़फ्फ़र अली जैसे नामी लोगों ने फ़िल्म देखी। उस वक़्त सत्यजीत रे अपनी पहली और बदकिस्मती से आख़िरी हिंदी फ़िल्म शतरंज के खिलाड़ी बना रहे थे। उन्होंने मुझे इस फ़िल्म में काम दिया। उसके बाद मुज़फ्फ़र अली की पहली फ़िल्म गमन में मुख्य किरदार निभाने का मौक़ा मिला। फिर नूरी’, उमराव जान’, चश्मे-बद्दूरऔर साथ-साथ जैसी फ़िल्मों के साथ सिलसिला चल निकला। आम ज़बान में कहते हैं कि गाते-गाते गवैया बन गया... उसी तरह मैं भी काम करते-करते अभिनेता बन गया।
अगर वकील बन जाता तो इतना संतुष्ट नहीं होता। मैं ख़ुद को ख़ुशनसीब मानता हूं, पर फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए कितना ख़ुशनसीब रहा हूं, यह नहीं कह सकता। इंडस्ट्री मुझे 40 साल से भुगत ही रही है। एक वक़्त में एक फ़िल्म ही करता हूं। फिलहाल क्लब 60 नामक फ़िल्म में काम कर रहा हूं। इत्तेफाक़ से सही, पर फ़िल्मों में आकर मैं ख़ुश हूं। फिर मौक़ा मिला तो कोई दूसरा पेशा नहीं अपनाना चाहूंगा। 
-फारुख शेख से बातचीत पर आधारित 

(अमर उजाला, मनोरंजन परिशिष्ट के 'फर्स्ट ब्रेक' कॉलम में 9 सितंबर 2012 को प्रकाशित) 
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