Monday, April 25, 2011

चलें दक्षिण के मैकलोडगंज

(मैं यहां बायलाकूपे की चर्चा शुरू करूं तो शायद आप मेरी बात पर ज़्यादा ध्यान नहीं देंगे.. लेकिन अगर कहूं कि मैं दक्षिण के मैकलोडगंज के बारे में कुछ कहना चाहती हूं तो आप यक़ीनन मेरी बात ग़ौर से सुनने लगेंगे.. है न? और लीजिए, जैसे ही मैं दक्षिण के मैकलोडगंज का शब्दचित्र आपके सामने बांधने लगी हूं, मेरी आंखों के आगे वही वैभवशाली भवन आकार लेने लगा है जिसे देखकर मेरे मुंह से एक ही शब्द निकला था... वाह! इसके साथ ही कानों में गूंजने लगी हैं मन्त्रोच्चार की ध्वनियां.. जिन्हें सुनते ही मेरा सारा तनाव बह निकला और मुझे लगा कि मैं ध्यान के सागर में गोते लगा रही हूं।) 
  
मैं आपसे फिलहाल एक ऐसी बस्ती की बात कर रही हूं जिसे भारत में तिब्बती विस्थापितों का दूसरा सबसे बड़ा ठिकाना कहा जा सकता है.. है तो यह कर्नाटक के मैसूर ज़िले में, लेकिन मैसूर से यहां तक पहुंचने में क़रीब दो घंटे का वक़्त लग जाता है। बहुत कम लोग होंगे जो मैसूर जाने के दौरान बायलाकूपे आते होंगे। अक़्सर लोग जब कूर्ग घूमने जाते हैं, तब बायलाकूपे का रुख़ करते हैं। जब आप कूर्ग से मैसूर जाते हैं, तो कूर्ग के कुशलनगर से बाहर निकलते ही दायीं तरफ का मोड़ आपको पांच किलोमीटर के सफर के बाद बायलाकूपे तक ले जाता है। हम भी उन लोगों में से थे जो कूर्ग की ख़ूबसूरती को दिलो-ज़हन में बसाने के बाद बायलाकूपे जाने की इच्छा को दबा नहीं पाए।
बायलाकूपे की बस्ती में
कुशलनगर के बस-स्टॉप से ऑटो लेकर हम चल दिए गोल्डन टेम्पल। बायलाकूपे में कई बड़े मठ हैं, जिनमें से एक नामद्रोलिंग है। मूल नामद्रोलिंग मठ तिब्बत में है। यहां बने नामद्रोलिंग को स्थानीय लोग गोल्डन टेम्पल कहते हैं। बायलाकूपे की सीमा में प्रवेश करते ही हवा में लहलहाते तिब्बती प्रार्थना-ध्वजों ने हमारा स्वागत किया। गोल्डन टेम्पल ले जाने वाली सड़क के दोनों तरफ़ हरे-भरे खेत हैं। शहर के शोरगुल से दूर, शांत सी यह सड़क दिल को ठण्डक पहुंचाती है। गोल्डन टेम्पल से पहले तिब्बती बाज़ार है। बाज़ार से गुज़रते हुए कुछ ही पलों में हम गोल्डन टेम्पल पहुंच गए।
आस्था का प्रतीक
यह तिब्बती बौद्ध धर्म के निंगमा संप्रदाय का मठ है। निंगमा संप्रदाय की नींव भगवान बुद्ध के अवतार गुरु पद्मसंभव ने रखी थी। गोल्डन टेंपल में प्रवेश करने पर लगा जैसे हम किसी दूसरी दुनिया में आ गए हों। यहां भगवान बुद्ध, पद्मसंभव और अमितायुस (भगवान बुद्ध का ही दूसरा अवतार, जिनका नाम अवलोकितेश्वर भी है) की भव्य मूर्तियां हैं, जो मेरी तरह आपको भी विस्मित कर देंगी। भगवान बुद्ध की ऐसी ही मूर्ति मैंने हिमाचल प्रदेश के मैकलोडगंज में देखी थी। लेकिन इन तीन ख़ूबसूरत प्रतिमाओं ने जैसे मुझ पर जादू कर दिया। दीवारों पर बने तिब्बती देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र, मन्त्रोच्चार और मोहक ख़ुशबू ने मुझे काफी समय तक मंत्रमुग्ध रखा। इन यादगार पलों को मैंने अपने कैमरे में सहेज लिया। यह बात अच्छी लगी कि यहां मठों के अंदर फोटो खींचने की मनाही नहीं है इसलिए आप बेफिक़्र होकर फोटोग्राफी कर सकते हैं।

गोल्डन टेम्पल के पीछे पुस्तकालय है।
वहीं मैंने बहुत सारे भिक्षुओं को बातचीत करते हुए देखा। उत्सुकतावश जब एक भिक्षु से बात की तो उसने टूटी-फूटी हिन्दी में तिब्बती समुदाय से जुड़ी कई दिलचस्प बातें मुझे बताईं। जिनमें से एक यह कि हर तिब्बती परिवार के सबसे बड़े पुत्र का भिक्षु बनना अनिवार्य होता है, चाहे उसकी रज़ामंदी हो या नहीं। हालांकि अब इस परंपरा का पालन पूरी तरह से नहीं हो रहा। इसके पीछे यही वजह हो सकती है कि नई पीढ़ी पुरानी परंपराओं का निर्वाह करने में ख़ुद को असहज महसूस करने लगी है।
मठ के आस-पास का इलाक़ा साफ-सुथरा और शांति भरा है। चारों तरफ़ ख़ूबसूरत पार्क हैं और वातावरण में अजीब सा सुक़ून है। दिमाग अपने-आप ही ध्यान की मुद्रा में चला जाता है।
गोल्डन टेम्पल के अलावा दो प्रमुख मठ हैं- सेरा जे और सेरा मे। दोनों मठ गेलुग संप्रदाय के हैं जो तिब्बती बौद्ध धर्म, शिक्षा और संस्कृति के केन्द्र के रूप में दुनिया भर में जाने जाते हैं। 

सेरा जे मठ  
यह मठ तिब्बत के सेरा विश्वविद्यालय की तर्ज पर बना है। सेरा जे एक बड़ी शैक्षिक संस्था है जिसमें देश-विदेश से छात्र पढ़ने आते हैं। बायलाकूपे में इसकी स्थापना गुरू गेशे लोबसांग पाल्देन ने सन् 1970 में की थी। यहां क़रीब 5,000 भिक्षु बौद्ध धर्म की पढ़ाई कर रहे हैं। विश्वविद्यालय के अलावा यहां एक बड़ा तिब्बती अस्पताल भी है, जो इसी मठ की देख-रेख में है।
इतिहास के पन्नों से 
1959 में तिब्बत पर चीनी हमले के बाद हज़ारों तिब्बती बेघर हो गए थे। भारत सरकार ने उन्हें बायालाकूपे में 3000 एकड़ भूमि दी, जहां अब 15 हज़ार से भी ज़्यादा शरणार्थी रह रहे हैं। तिब्बती प्रशासन का हेडक्वार्टर हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला के पास मैकलोडगंज में है। मैकलोडगंज के बाद बायलाकूपे तिब्बती विस्थापितों की सबसे बड़ी बस्ती है।  
यह प्रतिबंधित क्षेत्र है। आप चाहें तो पूरा दिन इत्मीनान से बिता सकते हैं लेकिन रात को बायलाकूपे में ठहरने के लिए पहले गृह मंत्रालय से 'प्रोटेक्टिड एरिया परमिट' लेना ज़रूरी है। बहरहाल यहां हर शाम होने वाली डिबेट में शामिल होना न भूलें। बहुत सारे भिक्षु वाद-विवाद के मक़सद से एक नियत स्थान पर एकत्रित होते हैं। एक भिक्षु नाटकीय ढंग से कोई सवाल पूछता है और ज़ोर से ताली बजाता है। दूसरा भिक्षु तुरन्त उठकर उसी लहज़े में जवाब देता है। पूरी डिबेट का कोई निष्कर्ष निकले, यह ज़रूरी नहीं लेकिन इसे देखना काफी दिलचस्प है।
बुद्धं शरणं गच्छामि 
पीले और मैरून रंग के लिबास में हर तरफ़ घूमते हुए भिक्षुओं को देखकर लगा जैसे मैं भारत में नहीं बल्कि तिब्बत में हूं। निर्वासन में रहने के बावजूद किसी तिब्बती के चेहरे पर शिकन नहीं दिखी। जन्मभूमि से दूर रहने वालों के लिए सबसे बड़ा ख़तरा अपनी संस्कृति और परंपरा को खो देने का होता है। लेकिन भारत में रह रहे तिब्बती लोगों ने अपने तौर-तरीक़ों और संस्कृति को काफी हद तक सहेजकर रखा है। प्रार्थना का वक़्त हुआ तो एक बार फिर हम गोल्डन टेम्पल की तरफ बढ़ गए। टेम्पल में रोज़ाना प्रार्थना सभा होती है। सभा शुरू हुई और हॉल में जमा बौद्ध भिक्षुओं ने तीन बार लेटकर नमन किया। फिर शुरू हुआ मन्त्रोच्चार का सिलसिला। मन्त्र पढ़ते हुए वो बच्चे भी दिखे जो कुछ ही देर पहले पार्क में भाग-दौड़ और मस्ती कर रहे थे। भक्ति में लीन वही बच्चे अब बेहद शांत और सौम्य लग रहे थे।
ज़ायका तिब्बत का 
अब पेट-पूजा की बात। अगर आपको भी तिब्बती भोजन पसन्द है तो बायलाकूपे में इसका मज़ा ज़रूर उठाएं। नामद्रोलिंग मठ के बाहर एक शॉपिंग कॉम्प्लेक्स है जहां खाने-पीने की कई दुकानें हैं। तिब्बत के कुछ व्यंजन यहां आज़माए जा सकते हैं जैसे टोफू’ (सोयाबीन के दूध को जमाकर बनाया गया आहार) मोमोज़ और थुक-पा (नूडल्स और सब्जियों से बना सूप)। पीने के लिए पो-चा है। पो-चा बटर टी है, जिसे तिब्बती बो-झा कहते हैं। इसका स्वाद चाय जैसा नहीं बल्कि कुछ कसैलापन लिए होता है। आम चाय यहां स्वीट टीहै। हमने वेज मोमोज़ और थुक-पा का ऑर्डर दिया, जिसे खाकर शॉपिंग के इरादे से हम आगे चल दिए। बाज़ार में फ्री तिब्बतस्लोगन के झोले और चीनी सामान का बहिष्कार करें वाले पोस्टर बिकते हुए दिखे। यहां मोल-भाव खूब होता है और आप ठीक दाम पर तिब्बती सामान ख़रीद सकते हैं.. जैसे कपड़े, सजावटी चीज़ें, मुखौटे और अगरबत्तियां वगैरह। ख़ास तौर से शेज़वान मिर्च जैसे तिब्बती मसाले, जो आमतौर पर आपको बाज़ार में नहीं मिलेंगे।
सूरज अस्त होने को था और पंछी अपने घोंसलो की तरफ लौट रहे थे। लेकिन मेरे ज़हन में
एक सवाल रह-रह कर उठ रहा था कि क्या तिब्बती मूल के लोग कभी अपने वतन लौट पाएंगे? क्या उन्हें उनके मौलिक अधिकार और खोई हुई पहचान वापिस मिलेगी जिसका वो बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं... यह सोचते हुए मैंने भी वापसी की राह पकड़ ली। 

याद रहे...
बायलाकूपे का मौसम सुहावना रहता है। बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले लोग देश-विदेश से यहां साल भर आते रहते हैं। लेकिन बायालकूपे का असली रंग देखना हो तो लोसर (तिब्बती नया साल), सागा दावा (बुद्ध जयंती), नेशनल अपराइसिंग डे (10 मार्च, तिब्बत पर चीन के हमले का दिन) या धर्मगुरू दलाई लामा के जन्मदिवस जैसा कोई अवसर चुनें। 

(दैनिक जागरण के 'यात्रा' परिशिष्ट में 24 अप्रैल 2011 को प्रकाशित)

3 comments:

  1. बायलाकूपे के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा। चित्रों ने तो मन मोह लिया।

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  2. मैं तो बैंगलोर में रहता हूँ, और मैसूर भी ज्यादे दूर नहीं है..दो घंटे बस..लेकिन फिर भी बायलाकुपे का नाम सुना नहीं था..अब ये पढ़ने के बाद जाने का मन करने लगा..

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  3. bahut khuubsurat aur shant jagah hai...do saal pehle coorg jate waqt gayi huun vahan

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