Saturday, December 25, 2010

एक और स्याह दिन

(पेशानी पर हल्की सलवटें, चेहरे पर साफगोई, सूती कुर्ता-पायजामा, और आंखों में चमक.. साल 2007 की शुरुआत में डॉक्टर बिनायक सेन से मुलाक़ात हुई थी, रायपुर, छत्तीसगढ़ में। उस वक़्त यह भान नहीं था कि मैं इतने बड़े समाजसेवी और डॉक्टर से मिल रही हूं। यह भी नहीं पता था कि मानव अधिकारों की रक्षा में जुटे इस मसीहा को एक दिन सलाख़ों के पीछे डाल दिया जाएगा। बस, उन्हें यह कहते हुए सुना था कि नक़्सली समस्या शांतिपूर्ण तरीक़े से सुलझ सकती है- बातचीत और समझौते की बिनह पर। यह कहकर वे मुस्कुराए और चल दिए। सौम्य-सी वो मुस्कान याद आ रही है। और खून खौल रहा है यह सुनकर कि डॉक्टर सेन को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई है। यह जानकर कि उन पर देशद्रोह का आरोप है।)

आज का दिन
काला दिन है
एक और मसीह को
घसीट ले जाया गया है सलीब तक

इशारा मिलते ही ठोक दी जाएंगी
उसकी हथेलियों पर कीलें
ताकि उठें न वो हाथ कभी
ग़रीब की मदद के लिए

ठोक दी जाएंगी कीलें
उसके पैरों पर
ताकि चल न सके वह दूर तक
किसी मक़सद के साथ

एक और कील ठोकी जाएगी
गले में 
ताकि ख़ामोश पड़े आवाज़ 
और 
चिर निद्रा में चला जाए वो

आज का दिन काला ही नहीं
शर्मनाक भी है।
-माधवी

Monday, December 20, 2010

विरह की कविता

स्लेट की मेहराब वाला
लकड़ी का घर
हो गया है अब
मकान आलीशान
सुविधाओं से संपन्न
पर
सुक़ून से कोसों परे 

जर्द हो गया है बरगद
आग़ोश में जिसके
गुज़रा बचपन
जवानी और 
जेठ की कई दोपहरें 

तोड़ दिया है दम
गुच्छेदार फूलों से
लदे अमलतास  ने 
सुनहली चादर से 
ढक लेता था जो आंगन
कभी-कभी
मेरे अंधेरों को भी 

उदास रहती है
ब्यास नदी 
बिना कश्ती के 
लांघ लिया है उसे
किसी पुरपेच पुल ने 

मेरा घर, मेरा गांव
मेरा नहीं रहा
मैं भी अब
मैं कहां रही! 

(वागर्थ के अगस्त 2011 अंक में प्रकाशित, चित्र दीपांजना मंडल से साभार)

Thursday, December 2, 2010

रोटी और कविता

मुझे नहीं पता
आटे-दाल का भाव
इन दिनों 

नहीं जानती
ख़त्म हो चुका है घर में 
नमक, मिर्च, तेल और
दूसरा ज़रूरी सामान 

रसोईघर में पैर रख 
राशन नहीं
सोचती हूं सिर्फ़
कविता 

आटा गूंधते-गूंधते
गुंधने लगता है कुछ भीतर
गीला, सूखा, लसलसा-सा 

चूल्हे पर रखते ही तवा 
ऊष्मा से भर उठता है मस्तिष्क 

बेलती हूं रोटियां
नाप-तोल, गोलाई के साथ
विचार भी लेने लगते हैं आकार 

होता है शुरू रोटियों के
सिकने का सिलसिला
शब्द भी सिकते हैं धीरे-धीरे 

देखती हूं यंत्रवत्
रोटियों की उलट-पलट
उनका उफान 

आख़िरी रोटी के फूलने तक
कविता भी हो जाती है
पककर तैयार।

(वागर्थ के अगस्त 2011 अंक में प्रकाशित)
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